प्रश्न: तेजी से विकसित हो रही तकनीक मौजूदा कानूनी ढांचे और न्यायिक उदाहरणों के लिए किस तरह की चुनौतियां पेश करती है? इस संबंध में, व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा के लिए कुछ उपाय भी सुझाइए।
What kind of challenges does rapidly evolving technology pose to the existing legal framework and judicial precedents? In this regard, also suggest some measures for the protection of individual rights.
उत्तर: वर्तमान युग में तकनीक की प्रगति अत्यंत तीव्र एवं बहुआयामी है, जिसने भारत के मौजूदा कानूनी ढांचे और न्यायिक व्याख्याओं के सामने अभूतपूर्व चुनौतियाँ प्रस्तुत की हैं। संवैधानिक अधिकार, विशेषतः निजता व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, तकनीक के साए में नए खतरों से घिर चुके हैं।
तकनीकी विकास से उत्पन्न कानूनी चुनौतियाँ
(1) डिजिटल निजता की अस्पष्ट परिभाषा: तकनीक ने डेटा संकलन की प्रक्रिया को व्यापक बना दिया है, किंतु भारतीय विधि में निजता की परिभाषा अस्पष्ट है, जिससे न्यायालयों के लिए उसके संरक्षण का स्पष्ट आधार सुनिश्चित करना कठिन हो जाता है।
(2) विधिक उत्तरदायित्व का विखंडन: स्वचालित प्रणालियाँ, विशेषकर कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित प्रणालियाँ, निर्णय-निर्माण की प्रक्रिया को मानवीय हस्तक्षेप से पृथक कर देती हैं। इससे यह निर्धारित करना जटिल हो जाता है कि विधिक उत्तरदायित्व नवोन्मेषक, उपभोक्ता या प्रणाली पर लागू होगा।
(3) न्यायिक पुनरावलोकन की सीमाएं: एल्गोरिदमिक निर्णयों की पारदर्शिता न होने से उनका न्यायिक परीक्षण असम्भव हो जाता है, जिससे मौलिक अधिकारों की प्रभावी रक्षा में न्यायपालिका की पारंपरिक भूमिका सीमित होती जा रही है।
(4) साइबर अपराधों की बहुराष्ट्रीय प्रकृति: तकनीक ने अपराधों को सीमाहीन बना दिया है, जबकि भारत का कानूनी ढांचा क्षेत्राधिकार की सीमा से बंधा है, जिससे न्यायिक प्रवर्तन और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में बाधाएं उत्पन्न होती हैं।
(5) कानूनी प्रक्रियाओं की अद्यतन शिथिलता: विधायी प्रक्रियाएं तकनीकी परिवर्तनों के साथ तेजी से अनुकूलित नहीं हो रही हैं, जिसके कारण पुरानी परिभाषाएं और अधिनियम नवाचारों की जटिलताओं से निपटने में असमर्थ हो रहे हैं।
व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा के उपाय
(1) व्यापक डेटा संरक्षण विधि का निर्माण: व्यक्तिगत अधिकारों को सुरक्षित रखने हेतु भारत को एक व्यापक, पारदर्शी और कठोर डेटा संरक्षण अधिनियम की आवश्यकता है, जो प्रत्येक नागरिक के डिजिटल जीवन के सभी पहलुओं को स्पष्ट रूप से विनियमित कर सके।
(2) न्यायिक संस्थानों में तकनीकी दक्षता का समावेश: न्यायपालिका में तकनीकी विशेषज्ञों की नियुक्ति और न्यायाधीशों के लिए नवाचार-उन्मुख प्रशिक्षण, तकनीकी मामलों में न्यायिक निर्णयों की गुणवत्ता और प्रासंगिकता को सुदृढ़ कर सकता है।
(3) स्वचालित प्रणालियों पर पारदर्शिता अनिवार्यता: एआई और एल्गोरिदम आधारित प्रणालियों में पारदर्शिता सुनिश्चित की जाए, जिससे उनके निर्णय प्रक्रिया को न्यायिक परीक्षण के लिए प्रस्तुत किया जा सके और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा हो सके।
(4) तकनीक के अनुकूल विधायी लचीलापन: विधि आयोग और संसद को तकनीकी नवाचारों के साथ समन्वित विधायी संशोधन हेतु उत्तरदायी बनाया जाए ताकि कानून समयानुसार अद्यतन रह सकें और तकनीकी विसंगतियाँ विधिक संकट न बनें।
(5) नागरिक अधिकारों की डिजिटल साक्षरता: सभी नागरिकों को डिजिटल अधिकारों, साइबर सुरक्षा, डेटा उपयोग और निजता के सिद्धांतों के प्रति सशक्त बनाने हेतु राष्ट्रीय स्तर पर डिजिटल साक्षरता अभियान चलाया जाना चाहिए।
तकनीकी नवाचारों के साथ संतुलन बनाए रखने हेतु न्यायिक व्याख्या, विधायी सक्रियता और नागरिक सहभागिता का समन्वित ढांचा आवश्यक है। अधिकारों की रक्षा केवल दंडात्मक व्यवस्था से नहीं, बल्कि संवैधानिक दृष्टिकोण और तकनीकी विवेक के समन्वय से ही संभव है।